Hindi Me Essay On Terrorism And Society । आतंकवाद और समाज पर हिंदी में निबंध
नात्सीज्म और फासीज्म आतंक समर्थक विचाराधाराएं थीं। व्यक्ति और समाज को भय तोड खोखला करता है और व ले जाता है। आतंक हंसक वन्य पशुओं के रहने या. उस भयावह वन को हमने शहरों में उगा दिया है। उसकी जड़े मन में गहरी उतर चुकी हैं।
आतंक घनेवन की तरह स्याह होता है और चीत्कारों से भरा रहता है। आतंक में अंधेरा फैलता है, संशय वाले नाग की तरह निरंतर फूत्कारता रहता है और मृत्यु का तांडव होता रहता है। जब सभ्यता मद्य छके हाथी की तरह कूरर होने लगती है, तब संस्कृति पर सीधा प्रहार होता है।
संस्कृति किसी समाज की आत्मा है। आत्मारहित समाज मांस पिंड है, निर्जीव और निष्क्रिय है। अंगुलिमाल एक डाकू था जो लोगों की अंगुलियां काटता था और उन अंगुलियों की माला गले में पहने रहता था अपितु अंगुलिमाल का आतंक ही था जो सवाल मन पर फन फैलाए नाग साहनी जया रुता था। उसे महात्मा बुद्ध नेकका अंगुलिमाल रास्ते पर आ गया। उसका नशा उतर गया। फिर, सब सामान्य हो गया नागरिक भयमुक्त हो गए।
आज फिर आतंक-दैत्य दहाड़ रहा है। उसकी काली परछाइयां निर्जन में अट्टाहस कर रही है। कोई है जो उसको संभाल सके। इस अंगुलिमाल को कौन चेत में लाएगा। राजा तक भी था, सेना भी थी और शक्ति का जोश भी, परंतु तब ये सब मिलकर भी अंगुलिमाल को वश में नहीं कर सके। व्यवस्था ने घुटने टेक दिए थे। सब विवश थे, सामाजिक किंकर्तव्यविमूढ़ थे।
तब भी शक्ति से अंगुलिमाल का दमन करना चाहा था, पर प्रयास निष्फल रहा। उसका कोठे राजनीतिक हल भी नहीं था। समझौते का तो प्रश्न ही नहीं था।
बुद्ध तो महात्मा ही थे, न तो उनके पास को की कोई योजना औरों की तरह शुतुरमु गौर न ही दमन-चक्र थे। वे निर्भिक थे। वे नहीं थे। डरना वे जानते ही नहीं थे। यही तो उनको बौद्ध-वृक्ष के नीचे महाबोध हुआ था। न बुढ़ापा डर का निमित है, न रोगग्रस्त अवस्था और न मृत्ये। जब इन सबका अस्तित्व ही नहीं फिर डर किससे और क्यों। डर गया कि महाबोधि के आलौकिक प्रकाश ने नवमार्गोन्मुख बना डाला। 'लौट जाओ, गौतम ! यह संदेश उन प्राणियों को भी जागर दो जो अपना सामना करने का साहस खो चुके हैं और जो जीवित होते हुए भी अपने जीने से इनकार कर रहे हैं।' तभी तो महात्मा बनकर लौटे थे बुद्ध। आत्मा का आत्मा से साक्षात्कार ही तो महात्मा है।
आज महात्मा कहां है? आज तो डर है और उससे जन्मी भयावह परछाइयां हैं जो मनुष्य के होने की सार्थकता को बैमाने किए जा रही हैं। पंजाब की बात हो या गंगानगर अथवा और कहीं की, उसका आधार एक ही है। कि जो नहीं है। उसे जन्माओं औश्र उससे डरा-धमका कर उनके सोच की खिड़कियों और दरवाजों को मानसि ओ। आतंक असोच की है।
काल दिया गया सोच संगीनों के मंत्रों से मुक्त और वास्तविकता को निगल जाती है। वह तो अनेकानेक प्राणों को अपना जैसा यांत्रिक बना डालती है। यांत्रिकता संवेदना सोख जाती है। नीति-विशारद चाणक्य न कहा है - 'अपराधानुरूपों दंडः ।' अपराध के अनुसार दंड-व्यवस्था होना जरूरी है। दंड-व्यवस्था असंतुलिक होने पर छोटी मछली को बड़ी द्वारा खा लिया जाना और निर्बलों को शक्तिमानों द्वारा उत्पीडित करना आम बात हो जाती है। फलतः राष्ट्र अराजक हो जाता है। आतंकवाद इसी अराजकता का परिणाम है।
आतंकवाद, व्यक्तिवाद और समाजवाद दोनों के विरुद्ध है। वह मानवता-विरोधी है। समूचे समाज को उसका सामना करना जरूरी है। स्वतंत्रता का लोप ही आतंकवाद को जन्म और हवा देता है। स्वतंत्रता का लोप होने की पहचान है- व्यक्ति असुरक्षा और आतंरिक भय समाज के ब ऐसी अनुभूति को हो रही है।
आतं... फलने का अर्थ है - लोकतंत्र प्रणाली पर अरातकवादी और निरंकुशात्मक प्रवृतियों की विजय। आज चारों ओर भय और आतंक फैला हुआ है। यदि इस दमघोंटू वातावरण से मुक्त होने की आकांक्षा है तो जनता को निर्भीक होकर आगे आना होगा और समस्त समाज-विरोधी शक्तियों का सिर कुचलना होगा। हिंसा का उत्तर हिंसा से दिया जाना आवश्यक नहीं है। यदि समाज एकजुट हो जाता है तो कोई भी षडयंत्र सफल नहीं हो सकता। आतंकवाद का भूत तभी तक भयभीत किए हैं जब तक समाज के हर एक व्यक्ति के मन में भय है। भय किससे और क्यों? एक दिन तो सबको काल का ग्रास बनना है फिर भय क्यों?
वास्तविकता तो ह है कि आज वर्गभेद, सांप्रदायिकता, शोषण, चरित्रहनन के उदाहरण इस जोश और दुस्साहस के साथ सामने आए हैं कि निष्ठावान, कर्मठ, सत्यवादी, परिश्रमी और सुयेज्य नागरिक का अपना विश्वास डगमगा उठा है। वह या तो डरता है अथवा इसको ढाल बनाकर अपने लिए इस्तेमाल करता है। दोनों ही स्थितियां आतंवाद को हवा देने और पुख्ता करने में सहायक है। अतः यह जरूरी हो जाता है कि इन दोनों स्थितियों ससे आम आदमी उभरे और अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को जन्म ही न दे।
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